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हम बोलेगा तो..बोलोगे की..बोलता है..




● केयर की केयर छोड़ो..संस्कारधानी की चिंता करो..
● कहीं जनता की जान न ले ले.. डॉक्टरों की हड़ताल
● सिफारशी लालों पर मेहरबान दिखे...मंत्री महोदय..

केयर की केयर छोड़ो..संस्कारधानी की चिंता करो..

केयर शब्द अपने आप में खास होने का अहसास कराता है। इसका शाब्दिक अर्थ विशेष देखभाल होता है। लेकिन विभागीय अधिकारियों की नज़र में इसका अर्थ काला पीला कर क्लाइंट को छत्र-छाया प्रदान करना है भले ही उसके लिए नियमों की आहुति ही क्यों न देनी पड़े। लेकिन एक जागरूक नागरिक की हल्की सी हुंकार ने इस छत्र-छाया को मरोड़ के रख दिया..
मामला जबलपुर का है जहां एक अस्पताल बिना किसी कागजातों के शहर के बीचों बीच धड़ल्ले से चल रहा था। खास बात यह है कि इस अनैतिक संस्थान की केयर के लिए बाकायदा जिम्मेदार अधिकारियों ने ही फील्डिंग लगा रखी थी।और हो भी क्यों न..
भले ही अस्पताल के पास जरूरी कागजात न हो..लेकिन गांधी के चहरे वाले कागज की कोई कमी नहीं थी..
और इसी कागज की दम पर अधिकारियों ने सारे कागज खुद तैयार करवा दिए थे।सारा काम बेहद शांति से पूरी सेटिंग के साथ चल रहा था तभी एक सिरफिरे आम आदमी का माथा घूम गया और उसने इस ताजमहल के अस्तित्व पर ही सवाल खड़ा कर दिया।मामले के न्यायालय पहुंचते ही सेटिंग के धागे एक के बाद एक खुद बखुद उखड़ने लगे। नतीजतन उसे बंद करवाने का फरमान जारी हो गया।
इस बहती गंगा में खुद की राजनीति चमकाने एक राजनैतिक पार्टी ने भी डुबकी लगाने की कोशिश की लेकिन अफसोस नेताजी के अरमान परवान न चढ़ सके।
हमारे विश्वसनीय चुगलखोर सूत्रों ने एक दूसरे पहलू की भी मुखबरी की है।उनकी माने तो इस कार्यवाही के पीछे व्यापारिक प्रतिस्पर्धा का एक तगड़ा खेल भी छुपा हो सकता है। अब इन अस्पताल के बंद होने से किसको फायदा पहुंचेगा..???
इसका जबाब विकास की कलम जनता के ऊपर छोड़ती है।
ताज़ा जानकारी की बात करें तो इस जंग का आगामी पड़ाव संस्कारधानी बताया जा रहा है।जिसकी मरम्मत के सारे साजो-सामान भी तैयार कर लिए गए है।
खैर हम तो ठहरे नारद वंशी.....
लिहाजा नारायण-नारायण करते हुए हमने भी सरफिरे याचिकाकर्ता से पूँछ ही लिया...
मधुमक्खी के छत्ते में हांथ तो डाल दिया है।खुद की तो चिंता करो....
तो याचिकाकर्ता ने बड़े सुलझे हुए शब्दों में जबाब देते हुए कहा..

केयर की केयर छोड़ो..संस्कारधानी की चिंता करो..


वैधानिक चेतावनी :- इस लेख में उल्लेखित किए गये सारे प्रसंग सिर्फ और सिर्फ जनता के नजरिये पर आधारित है।
अतः प्रीत पत्रकारिता या किसी पक्ष विशेष की चाटुकारिता करने वालों को यह लेख मानसिक रूप से आहत कर सकता है। 



कहीं जनता की जान न ले ले.. डॉक्टरों की हड़ताल


धरती का भगवान आए दिन हड़ताल पर चला जाता है। जिसे लेकर आम जनता में भय का माहौल निर्मित हो चला है। जनता की माने तो सरकारी चिकित्सालयों में जैसे तैसे जुगाड़ लगाकर इलाज कराने की जुगत भिड़ाई जाती है। लेकिन उन्हें मरीज को लेकर यह डर लगातार सताता रहता है कि न जाने कब हड़ताल हो जाये और सारे काम अधूरे पड़ जाए। हालांकि डॉक्टर खुद के हक के लिए हड़ताल का सहारा लेते है।लेकिन उनकी इस जंग के चक्कर में कइयों की जान हलक तक आ जाती है। ऐसा ही कुछ नज़ारा जबलपुर में भी देखने को मिला। आपको बतादें की लोक स्वास्थ्य एवं परिवार कल्याण विभाग के चिकित्सक महासंघ ने संयुक्त रूप से पुरानी पेंशन बहाल करने क्रमोन्नति सहित डॉक्टर्स के कार्य में प्रशासनिक अधिकारियों के हस्तक्षेप का विरोध करने संबंधी 20 सूत्री मांगों को लेकर एक बार फिर से प्रदेश स्तर पर हड़ताल का बिगुल फूंक दिया। जिसके चलते शहर के मेडिकल और जिला अस्पताल की चिकित्सकीय व्यवस्था सड़कों पर आ गई। नजारों की बात करें तो हड़ताल के चलते शुक्रवार सुबह से ही वार्डों में डॉक्टर नदारद मिले। वहीं दूरदराज से आए मरीज दर बदर भटकते हुए नज़र आए। दर्द से तड़पता मरीज ऑपरेशन थियटर जाने को बेताब रहा लेकिन उसकी यह मंशा हड़ताल की भेंठ चढ़ गई। विभागीय आंकड़ों की बात की जाए तो शुक्रवार की इस हड़ताल के चक्कर में आधा सैकड़ा से अधिक ऑपरेशनों को टाल दिया गया। वहीं सेकड़ों मरीजों को दर्द से कराहते हुए बेरंग ही अपने घरों को लौटना पड़ा। हालांकि दोपहर ढलते-ढलते तक राजनीतिक हस्तक्षेप के बाद हड़ताल को खत्म करा दिया गया। लेकिन तब तक मरीजों और उनके परिजनों की हालत काफी बदतर हो चुकी थी। वहीं इस हड़ताल को लेकर चिकित्सा शिक्षा मंत्री विश्वास सारंग ने चिकित्सा महासंघ के पदाधिकारियों के साथ चर्चा की और कहा कि चिकित्सा महासंघ की मांगों को लेकर हाई पावर कमेटी बनाई जाएगी जहां उनकी समस्याओं और मांग पर विचार करेगी और सरकार समय सीमा में उनपर विचार करके निर्णय लेगी। समिति में महासंघ में शामिल सभी विभागों के प्रतिनिधि भी शामिल होंगे। विश्वास सारंग के साथ चर्चा के बाद चिकित्सकों ने अपनी अनिश्चितकालीन हड़ताल वापिस ले ली। हड़ताल भले ही खत्म कर दी गईं हो लेकिन जनता के दिलों में दहशत अब भी बरकरार है।

आलम यह है कि मरीज से ज्यादा डॉक्टरों की परिजन करते है पड़ताल..
उन्हें हर वक्त यह डर सताता रहता है कि

कहीं जनता की जान न ले ले.. डॉक्टरों की हड़ताल



वैधानिक चेतावनी :- इस लेख में उल्लेखित किए गये सारे प्रसंग सिर्फ और सिर्फ जनता के नजरिये पर आधारित है।
अतः प्रीत पत्रकारिता या किसी पक्ष विशेष की चाटुकारिता करने वालों को यह लेख मानसिक रूप से आहत कर सकता है। 



सिफारशी लालों पर मेहरबान दिखे...मंत्री महोदय..

सिफारिश की चाशनी सरकारी नौकरी के लिए संजीवनी का काम करती है। हालांकि यह एक ऐसी कुप्रथा है जो योग्य का हक छीन कर अयोग्य को स्थाई लाभ प्रदान करती है। लेकिन जब बात सत्ता के सिपहसालारों द्वारा की गई सिफ़ारिश की हो तो शीर्ष पर बैठे आलाकमानों को भी सिफारशी लालों का संम्मान करना ही पड़ता है। यही कारण है कि कभी सिफारिश को कैंसर का नाम देने वाली पार्टी आज सत्ता में आने के बाद इसकी पैरवी करती नज़र आई।

दरअसल अल्प प्रवास पर जबलपुर पहुंचे प्रदेश के गृहमंत्री का एक बचावी स्टंट इन दिनों राजनीतिक पंडितों के गुणा-भाग को चौपट करता दिखाई दे रहा है। मामला 6 मंत्रियों द्वारा अपने स्टाफ के 250 कर्मचारियों को मंत्रालय में पक्की नौकरी दिलवाने के लिए दिए गए सिफारशी

पत्रों से जुड़ा है। मामले की भनक लगते ही विपक्ष में घात लगाए बैठी कांग्रेस ने इसे नेपोटिज्म और मोटे कमीशन जैसे तरह-तरह के लिबास पहना कर प्रस्तुत करना शुरू कर दिया।

हालांकि इस पूरे मामले में भृस्टाचार की बदबू को लेकर पूरा मीडिया घराना नाक सिकोड़ने की तैयारी कर चुका था। लिहाजा मंत्री महोदय के शहर आते ही उन्होंने मंत्री जी के आगे सवालों की बौछार शुरू कर दी। इधर मंत्री जी के सामने भी धर्म संकट जैसी स्थिति बनी हुई थी।

खैर मंत्री जी ने भी मंजे हुए खिलाड़ी के माफिक जोरदार बल्लेबाजी करते हुए पैरवी का शतक लगा ही दिया।

अपने बेवाक अंदाज में मीडिया को संबोधित करते हुए मंत्री महोदय ने कहा कि नौकरियों के लिए सिफारिश करना गलत नहीं है। राजनीति में रहते हुए सेवादारों और कार्यकर्ताओं के लिए करनी पड़ती है। इस पूरे मामले में विपक्ष द्वारा लगाए जा रहे भृस्टाचार के आरोपों का खंडन करते हुए उन्होंने कहा कि उन्हें कांग्रेस के किसी सर्टिफिकेट की जरूरत नहीं है।

इधर आए मुद्दे को हांथ से जाता देख हर विपक्षी के दिल से बस यही आह निकलती दिखाई दी कि

हम आह भी करते हैं तो हो जाते हैं बदनाम..
वो क़त्ल भी करते हैं तो चर्चा नहीं होती..

खैर सिफारिश एक ऐसा लड्डू है जो मिलने वाले के लिए अलग और न मिलने वाले के लिए अलग मायने रखता है।
मौजूदा हलातों की बात करें तो अब मेहनत करने वालों को अपनी कार्य कुशलता से ज्यादा सेटिंग की ओर ध्यान देना पड़ेगा। ताकि वे सिफारिश के जरिये सफलता हांसिल कर सकें। अब चूंकि इसे वैधानिक भी घोषित किया जाने लगा है लिहाजा भविष्य में इसका प्रभाव काफी असरदार भी होगा।

अब यह फैसला जनता को ही करना होगा कि आखिर किस बात पर जोर देने से होगा उनके भाग्य का उदय..
हम तो सिर्फ यही कहेंगे कि..

सिफारशी लालों पर मेहरबान दिखे...मंत्री महोदय..


वैधानिक चेतावनी :- इस लेख में उल्लेखित किए गये सारे प्रसंग सिर्फ और सिर्फ जनता के नजरिये पर आधारित है।
अतः प्रीत पत्रकारिता या किसी पक्ष विशेष की चाटुकारिता करने वालों को यह लेख मानसिक रूप से आहत कर सकता है। 

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